गुरुवार, 7 मई 2009

मैं हूँ एक दिया




मैं हूँ जलता हुआ राह का एक दिया,


जिसने लोगों की राहों को रोशन किया।


बदनसीबी मगर मुझको इतनी मिली,


मुझको अपनी कभी रौशनी न मिली।


1 टिप्पणी:

मधुकर राजपूत ने कहा…

कहीं पढ़ा था साहब, "मेरी ज़िंदगी का मकसद है औरों के काम आना, मैं चराग़े रहग़ुज़र हूं मुझे शौक से जलाओ"। खूब कहा आपने और जब भलाई के लिए निकलो तो अपने फायदे को ताक पर रखकर। एक शिकायत है ज़नाब अनवार मिया। मुद्दत हुई आप हमारे अड्डे पर तशरीफ़ नहीं लाए। अपने ब्लॉग के खंडहरों की सैर पर निकले तो आपके नाम का पत्थर भी निकल आया। सोचा आपकी मिजाज़पुर्सी कर ली जाए कि ज़नाब इतने दिनों से किस बात को लेकर छोटे भाई से ख़फ़ा हैं? या फिर ज़िंदगी में ज़्यादा मशरूफ़ हो गए हैं?

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