मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

मेरे आंसू

हमें तन्हाइयों की आदत है,
हमको महफिल में मत बुला लेना।
याद आ जाएं जब मेरे आंसू ,
देखो पल भर को मुस्कुरा देना।

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

प्रतिक्रिया

राहुल भाई आप ही की तरह अन्य मित्र भी मेरे दर्द की वजह पूछते हैं , मुझे लगता है की जो लोग रिश्तों को बचाए रखने में सारी उम्र लगा देते हैं अक्सर उन्हें ऐसे ही ज़ख्मों से दो -चार होना पड़ता है हाँ ये और बात है के आसानी से ये ज़ख्म दुनिया के सामने अयाँ नही होते , कृष्ण बिहारी नूर साहब के शब्दों में:-
तमाम जिस्म ही घायल था घाव ऐसा था,
कोई न जान सका रखरखाव ऐसा था।

=अनवारुल हसन

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

ज़ुल्म की शिद्द्त


बढ़ा दो ज़ुल्म की शिद्द्त बढ़ा दो,

बहुत दिन हो गए रोया नही हूँ।

सिरहाने मौत का तकिया लगा दो,

कई रातों से मैं सोया नही हूँ ।

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