शनिवार, 6 दिसंबर 2008

इंसान का चेहरा!


उसे कोई भी शै हंसती हुई अच्छी नही लगती,
वो फूलों के लबों से मुस्कुराना छीन लेता है।
घने जंगल इसी की ज़द में आ कर शहर बनते हैं,
ये इन्सां तो परिंदों का ठिकाना छीन लेता है।

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सतवचन, आमो-खास सभी तो इस ज़द में आते हैं। बस कुछ जानकर करते हैं और कुछ अंजाने में, लेकिन जाने अंजाने सभी अपना घर उसी तरह बीज रहे हैं जैसे घुन। लेकिन इंसान शायद भूल गया कि घुन की तरह वो 'घर' नहीं बदल सकता। एक दिन ये आतंकवाद और कंकरीटिया कवायद पलायन के लिए दुनिया छोटी कर देगी।

neera ने कहा…

Waah! Waah! kya khoob kaha..

daanish ने कहा…

sahee farmaya aapne !
hansi, khushi, muskrahat, maasumiyat...
ye sb to shabd maatr hain in ke liye..
aatankvaad kaheen bhi ho, kisi bhi roop mein ho
hamesha hi insaniyat ka dushman hi hota hai.
Dua hai.. k hm sb ko Bhagwaan ka paavan aashirwaad milta rahe...!
---MUFLIS---

Vijay Kumar ने कहा…

bahhot khoob . kam adhura hai abhi .nazm puri karen.

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