
मैं काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूँ,
नहीं है काम ये आसां मगर अक्सर बनाता हूँ।
मेरी हालत तो देखे पास आकर उस घड़ी कोई,
मैं अरमानो में अपने आग जब हंस कर लगाता हूँ।
ये जितने फूल हैं ले लो हमें तुम ख़ार रहने दो,
ये दामन थाम लेंगे मैं इन्हें रहबर बनाता हूँ।
नज़र आती है मुझको हर हसीं चेहरे की सच्चाई,
मैं दरपन को उठा कर जब कभी पैकर बनाता हूँ।
जगा कर दर्द हर दिल में बुझा दो आग नफ़रत की,
मैं अपने अश्क़ से पैमाना- ए- कौसर बनाता हूँ।
जहाँ से दूर कोसों हो गया हो दर्द और आहें,
मैं ऐसे महल तख्तों-ताज को ठोकर लगाता हूँ।
उठाई है क़लम हमने यहाँ तलवार के आगे,
मैं दुनिया को क़लम का आज ये जौहर दिखाता हूँ।
मेरे गिरने पे क्यों 'अनवार' हंस पड़ती है ये दुनिया,
मैं ठोकर खा के अपनी ज़िन्दगी बेहतर बनाता हूँ।
15 टिप्पणियां:
पेड़ जंगल के हरे सब हो गए ,
ख्वाब आंखो मे उतर आया कोई .
चिलचिलाती धूप मे तन्हा शजर ,
बुन रहा किसके लिए छाया कोई .
mujhe faqr hai ki mai kisi na kisi hasiyat ya rishte se apse judi hoon...agar apki gazal ki tareef lafzon me bayan karoon to ya apke sath be-imani hogi.......(anupama)
wah bhai kya baat hai ye bahut badi baat hai ki gazal ke har sher umda ho.
aapki lekhni ko meet ka salam
Bhaijaan in shabdo ki tareef me mere shabdkosh me shabd nahi aur juban per alfaaz nahi, bus itna keh sakta hoon ki mere jaan ne walo me ab tak ki better rachna hai, ummeed hai ki yeh safar jaari rahega.....bahut....umda
nadan
'मैं काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूँ,
नहीं है काम ये आसां मगर अक्सर बनाता हूँ।'
'उठाई है क़लम हमने यहाँ तलवार के आगे,
मैं दुनिया को क़लम का आज ये जौहर दिखता हूँ।
*** वाह! बहुत उम्दा !
कलम का वार तलवार के वार से भी अधिक असरदार होता है कभी कभी!
तभी मीडिया से अच्छे अच्छे डरते हैं.
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आप ने.
बधाई.
मैं काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूँ,
नहीं है काम ये आसां मगर अक्सर बनाता हूँ।
Waah Sir Realy very nice ...................
जहाँ से दूर कोसों हो गया हो दर्द और आहें,
मैं ऐसे महल तख्तों-ताज को ठोकर लगता हूँ।
sir Bahut acchi lines ........
Shukriya ...........................
मेरे पास शब्द नहीं आपकी इस ग़ज़ल के लिए.....अंतिम पंक्ति """"मैं ठोकर खा के अपनी ज़िन्दगी बेहतर बनाता हूँ। """"बल्कि पूरी ग़ज़ल ही लाजवाब है......
उठाई है क़लम हमने यहाँ तलवार के आगे,
मैं दुनिया को क़लम का आज ये जौहर दिखता हूँ।
Sir ji yaha shayad aapki typing mistake hui hai
Dikhaata hun dikhta hua likh gaya hai.....
मेरे गिरने पे क्यों 'अनवार' हंस पड़ती है ये दुनिया,
मैं ठोकर खा के अपनी ज़िन्दगी बेहतर बनाता हूँ।
waah kamaal ka sher kaha hai .....
har sher sunder
kya daad doon, nishabd hun
आप सब का बहुत शुक्रिया. वर्तनी की त्रुटि की ओर ध्यान इंगित कराने के लिए... श्रृद्धा जी धन्यवाद.
'मैं काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूँ,
नहीं है काम ये आसां मगर अक्सर बनाता हूँ।'
उम्दा ग़ज़ल
मेरे गिरने पे क्यों 'अनवार' हंस पड़ती है ये दुनिया,
मैं ठोकर खा के अपनी ज़िन्दगी बेहतर बनाता हूँ।
बहुत ही बढ़िया.जीते रहिये.
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