मंगलवार, 30 मार्च 2010

क़लम तलवार के आगे


मैं काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूँ,
नहीं है काम ये आसां मगर अक्सर बनाता हूँ

मेरी हालत तो देखे पास आकर उस घड़ी कोई,
मैं अरमानो में अपने आग जब हंस कर लगाता हूँ

ये जितने फूल हैं ले लो हमें तुम ख़ार रहने दो,
ये दामन थाम लेंगे मैं इन्हें रहबर बनाता हूँ

नज़र आती है मुझको हर हसीं चेहरे की सच्चाई,
मैं दरपन को उठा कर जब कभी पैकर बनाता हूँ

जगा कर दर्द हर दिल में बुझा दो आग नफ़रत की,
मैं अपने अश्क़ से पैमाना- - कौसर बनाता हूँ

जहाँ से दूर कोसों हो गया हो दर्द और आहें,
मैं ऐसे महल तख्तों-ताज को ठोकर लगाता हूँ

उठाई है क़लम हमने यहाँ तलवार के आगे,
मैं दुनिया को क़लम का आज ये जौहर दिखाता हूँ

मेरे गिरने पे क्यों 'अनवार' हंस पड़ती है ये दुनिया,
मैं ठोकर खा के अपनी ज़िन्दगी बेहतर बनाता हूँ

सोमवार, 1 मार्च 2010

रंगों का मज़हब


सभी रंगों ने आपस में मिल कर,
मिटा दिया है अपना अस्तित्व
भुला दिया है अपना धर्म,
नही रहा भेद भाव का तत्त्व

नहीं रह गयी इनकी पहचान,
इनसे कुछ सीखेगा इन्सान ?

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