शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

टूट गयीं चूडियाँ

अपने पिता के निधन के बाद मैंने अपनी माँ की टूटी हुई चूडियों की एक घटना अपनी बहिन वर्षा दीपक जी को बताई थी। उन्होंने मेरे दर्द को महसूस किया और कुछ दिन बाद ये कविता लिख कर मुझे दी। इस घटना से मैंने यह जाना के परम्पराओं की डोर कितनी मज़बूत होती है।
_अनवारुल हसन

खनकती कलाई माँ की, चूडियाँ हरी-भरी

मुस्कान गुलाबी लगती थी कितनी भली।

काली घटा में एक दिन, घटना ऐसी घट गयी

ढूँढा बहुत हँसी को पर जाने कहाँ सिमट गयी।

खो गए कहकहे, उमड़ी भीड़ इधर-उधर

फुसफुसाते लोगों के बीच, घुलने लगा अजब ज़हर।

फ़र्श पर कांच बिखरे, ले रहे थे अन्तिम साँस

रंग-बिरंगे सपने टूटे, चुभो दी गयी जबरन फाँस।

पापा लाते थे चूडियाँ, लगता था जब मेला

एक मेला लगा घर में , बदले माँ का चोला

बदली समय ने चाल, पर बदले नहीं रिवाज

हरी चूडियाँ छीन, घाव हरे कर रहा समाज।

देती नहीं सुनाई अब, रुनझुन वाली पदचाप।
ओढ़ उदासी, माँ दिखती है चुपचाप।

रंग गए पापा संग, माँ रहे यादों के साथ

छिप-छिप रोए, देखे बेटी माँ के नंगे हाथ।

_वर्षा दीपक दिवेदी

मंगलवार, 15 जुलाई 2008

ग़रीबी में ऐश


एक अमीर लड़की को स्कूल में ग़रीब परिवार पर निबंध लिखने को कहा गया

ESSAY : एक ग़रीब परिवार था, पिता ग़रीब, माँ ग़रीब, बच्चे ग़रीब। परिवार में 4 नौकर थे, वह भी ग़रीब। कार भी टूटी हुई SCORPIO थी। उनका ग़रीब ड्राईवर बच्चों को उसी टूटी कार में स्कूल छोड़ के आता था। बच्चों के पास पुराने मोबाइल थे। बच्चे हफ्ते में सिर्फ 3 बार ही होटल में खाते थे। घर में केवल 4 सेकंड हैण्ड एसी थे। सारा परिवार बड़ी मुश्किल से ऐश कर रहा था.!
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